Thursday, April 3, 2014

बदलाव वहाँ करें जहाँ इसकी जरुरत है...



अगर हम अपने आस-पास और अपने जीवन की परिस्थितियों से खुश नहीं हैं तो जाहिर है कुछ बदलाव की सख्त जरूरत है. लेकिन अगर हम गौर से देखें तो बदलाव तो हम लगातार करते आ रहे हैं.

हम लगातार अपने घर में सामान बदल रहे हैं, अपने काम भी बदल रहे हैं, अपने घर भी बदल रहे हैं,अपने लक्ष्य भी बदल रहे हैं, कपङे और आभूषण भी बदल रहे हैं, यहाँ तक की कु्छ लोग तो अपने पार्ट्नर भी बदल लेते हैं लेकिन खुशी और संतुष्टि फिर भी जीवन से कहीं दूर है तो सबसे पहले अपने अंदर झाँकिये, बदलाव की जरुरत यहाँ है. मेरे जीवन में घट रही खराब चीजों के लिये दूसरे लोग बाद में दोषी हैं, पहले मैं हूँ. मेरे दुख और परेशानियों के लिये पहला कसूर उन फैसलों का है जो मैंने किये हैं. अगर आपके साथ अच्छा नही हो रहा है तो सबसे पहले अपने अंदर झाँकिये.

बकौल गालिब -
उम्र भर गालिब यही भूल करता रहा,
धूल चेहरे पे थी, आईना साफ करता रहा.

Saturday, March 29, 2014

साधुवाद !!

साधुवाद !!

प्रिय भाई रविंदर
तुम्हारे माध्यम से चीमा जी के बारे में जानने का मौका मिला इसके किये साधुवाद। देश की मिट्टी की  खुशबु देश की  संसद भी महकाये इस शुभकामना के साथ।
तुम्हारे मंच से भाई केजरीवाल जी के लिए भी कुछ कहना  चाहता हूँ ,

भाई अरविंद जी
सादर नमस्ते
अपने मित्र के माध्यम  से आम आदमी पार्टी के हल्द्वानी उम्मीदवार श्री बल्ली सिंह चीमा जी का प्रोफाइल पढ़ने का मौका मिला , ऐसे ही एक और व्यक्तित्व डॉ विरेन्द्र सिंह जी जो जयपुर से "आप" के उम्मेदवार हैं, उनको व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ।  दोनों अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित नाम , और दोनों ही बिलकुल ज़मीन से जुड़े हुए आम इंसान , देश की  राजनीति को आज ऐसे ही लोगो कि जरूरत है। एक बात सच है "आप" ने चुन चुन कर हीरे जमा किये हैं।  इसके लिए सबको बधाई ,

- डॉ राजीव

Saturday, March 22, 2014

प्रश्न शेष है

धूमिल जी कि एक कविता -
रोटी और संसद
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।

आजादी के 67 साल बाद भी यह प्रश्न शेष है कि हम आज भी एक गरीब देश क्यों कहलाते हैं , क्यों हमारे देश के 45 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं ? आज जब चुनाव सामने खड़े हैं तो हर नेता गरीबी राग क्यों  गा रहा है ? क्यों ये गरीब लोग आज भी एक आस में हैं कि किसी दिन इनके घर भी दो जून अनाज होगा ?
इनकी गरीबी राजनीति से तो नहीं मिटने वाली हाँ मगर हमारे राजनेताओं कि तिजोरियाँ भरने का ज़रिया जरूर बनती रहेंगी।

Monday, March 10, 2014

राजनीति और हमारी विसंगतियाँ



राजनीति और हमारी विसंगतियाँ

भाजपा परिवारिक राजनीति को सैद्धांतिक रूप से अस्वीकार करती है. परंतु अकाली दल,
शिव सेना, लोक जनशक्ति पार्टी जैसे परिवारिक दल उसके मुख्य सहयोगी हैं. किंतु उसमें
भाजपा को कोई आपत्ति नहीं है. और इससे भाजपा को कोई सैद्धांतिक नुकसान नही होता.

दूसरी तरफ पासवान घोषणा करते हैं कि भाजपा के साथ जाने के बावजूद हम सेक्यूलर
बने रहेंगे. यानि भाजपा और लोजपा दोनों एक दूसरे के साथ मिलकर भी अपने सिद्धांतो
पे बने रह सकते हैं. पर कैसे?

ममता बनर्जी और जयललिता फिलहाल भाजपा से दूरी बनाये हुये हैं क्योंकि दोनों को ही
अपने अपने राज्य में काफी बङे मुस्लिम समुदाय के वोटों को हाथ से नहीं जाने देना है.
लेकिन चुनावों के बाद इनके कहीं भी जाने के दरवाजे खुले रहेंगे. मायावती भी इसी राह
पर हैं. ममता बनर्जी , जयललिता और मायावती का "मजमा" इस बार देखिये क्या गुल खिलाता है?

हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री अपने अधीन मंत्रियों द्वारा बङे घोटालों के बावजूद ईमानदार ही
कहे जायेंगे. उनकी कोई जिम्मेदारी ना कभी थी ना अब है. कांग्रेस के बङे बङे नेता विरोधी
नेताओं पर कितने भी गलत शब्दों में बयान देते रहें, कांग्रेस के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष उनके
बयानों से दूरी बना लेंगे, उनकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं बनती.

एक पार्टी के नेताओं का दूसरी पार्टियों में तीर्थटन शुरू हो चुका है. कल तक कांग्रेस की
नीतियों को ही ठीक कह रहे नेता अब अगली सरकार कांग्रेस की न बनती देख भाजपा
में जा रहे हैं, शायद सरकार का समय पूरा होते होते उनका इन नीतियों से मोहभंग हो
चुका है, लेकिन कमाल देखिये कि भाजपा भी गलबहियों को तैयार है. शायद भाजपा का
मानना ये है कि कांग्रेस में भ्रष्टाचार पार्टी करती है उसके नेता नही. लालू जी के पार्टी सचिव
चुनाव क्षेत्र छिनता देख बिदक रहे हैं शायद उनके लिये भी भाजपा में जगह हो ही
जायेगी.

उधर अन्ना जी और किरण बेदी जी, केजरीवाल को राजनितिक दल बनाने पर कोस कोस
कर जब थक गये तो किरण बेदी जी के तो भाजपा का रुख करने की खबरें हैं और
अन्ना जी को ममता बनर्जी का प्रचार करते देखना बुरा मुझे भी नहीं लग रहा है.

लम्बे समय तक राजनितिक तहलका मचाने वाले, एक नया राजनीतिक दल खङा करने
का प्रयास करते दिखे, लोगों में सच्च की अलख जगाते बाबा रामदेव भाजपा के पीछे
जा खङे हुए थे. लेकिन इन दिनों वे खबरों से कहीं परे हैं

ये सारी विसंगतियाँ एक ही बात की तरफ इशारा करती हैं कि चाहे यहाँ कुछ भी
क्यों ना हो जाये उसके लिये कोई भी व्यक्तिगत तौर पे जिम्मेदार नहीं है.
ना नेता, ना राजनीतिक दल, ना वोटर, ना प्रशासनिक मशीनरी और शायद ना ही हम और
आप. फिर इस देश के अच्छे बुरे का जिम्मेदार है कौन?? 

Saturday, March 8, 2014

सब्सिडी और बढता घाटा


2013 -14 मे विकास दर की सम्भावना 6 फीसदी रहने की घोषणा की गई थी लेकिन ये 5 फीसदी से भी नीचे है. इस साल  कृषि और सर्विस सेक्टर मे विकास दर बेहतर रही परन्तु उत्पादन क्षेत्र मे विकास दर नकारात्मक रही.

अनुसधान और विकास के क्षेत्र मे अमेरिका सबसे अधिक खर्च करता है, चीन दूसरे नंबर पर है, भारत चीन का दसवाँ हिस्सा ही इस मद मे खर्च करता है.

2013 -14 में देश में जो अलग अलग वर्गों मे सब्सिडी दी गई उसमे कार्पोरेट सैक्टर की सब्सिडी सबसे अधिक है, किसानों को वास्तविक रूप मे मिलने वाली सब्सिडी सबसे कम है. यहाँ तक कि पिछले 10 वर्षों मे जितनी सब्सिडी कार्पोरेट सैक्टर को दी गई है वो हमारे कुल बजटीय घाटे से भी अधिक है. किंतु निजी कार्पोरेट सैक्टर, नकारात्मक  विकास दर के बावजूद घाटे मे नहीं है, उनके लाभ, साल दर साल बढते ही जा रहे हैं, वो नये नये अधिग्रहण करते जा रहे हैं.

फिर भी आम जनता को किसी सब्सिडी की घोषणा होने पर उधोग जगत, विपक्षी दल, विश्व बैंक आखें तरेरने लगते हैं, क्यों?

हमारे बडे कारोबारी बैंको की कुल NPA लगातार बढती जा रही है, जो कि 2.5 लाख करोङ को पार कर गई है. इसमे देखने की बात ये है कि आखिर कौन वो लोग हैं जो लिया हुआ कर्ज वापिस नही लौटाते. मेरे पास तथ्य तो नही हैं लेकिन मेरे एक जानकार बैंकर ने बताया कि इसमे से 70 फीसदी से भी ज्यादा व्यापारिक कर्ज हैं. जिसमें "मलाया" जैसे किंगफिशर के मालिक भी शामिल हैं.

यानि सब्सिडी भी सबसे ज्यादा उधोगों को ही मिल रही है, सस्ती जमीनें और सस्ते क्ष्रमिक भी उन्ही को चाहिये, नीतियाँ भी उन्हे अपने पक्ष में चाहिये, और कर्ज भी वही दबा कर बैठेंगे. तो आखिर ये राजनितिक दल कर क्या रहे है? ये उधोगपति इस देश का विकास करके देंगे? इनके अपने पेट तो भरते नही, ये दूसरो के पेट भरने की फिक्र कब करने वाले हैं?

पब्लिक सैक्टर मे काम करने वाले सभी लोगो को चाहिये कि वे पूरे मन से अपने काम को पूरा करे. वर्ना सरकारें तो चाहती ही ये है कि सरकार चलाने के अलावा सारा काम निजी कम्पनियों को दे दिया जाये. सारी सरकारी सम्पत्ति औने-पौने दामों में निजी हाथों में बेच दी जाये और फिर उधोगपति और उनसे मिलकर ये नेता, आम जनता का खून जी भर कर चूसें.

धर्म और राजनीति

धर्म का सम्बन्ध व्यक्तिगत विकास से है, चाहे वो कोई भी धर्म क्यों ना हो. धर्म सामाजिक और राजनितिक व्यवस्था के सवालों का हल नही बताता, क्योंकि वो इसके लिये नहीं बना है. कोई भी व्यक्ति अगर धर्म के आधार पर वोट डालता है तो वो राजनितिक नेताओं को धर्म को एक राजनीति करने का हथियार बनाने का मौका देता है. एक बात हमेशा ख्याल रखें कि किसी भी दल के नेता धर्म को लेकर गभींर नही हैं उनके लिये ये सिर्फ वोट पाने का एक तरीका है.

देश में दंगे भी इसीलिये करवाये जाते हैं कि लोग धर्म के लिये थोडे थोडे कट्टर हो जायें और उन्हे धर्म के आधार पर उकसाकर वोट लिये जा सकें. लेकिन दंगे करवाने में बडा हाथ हमेशा ही कट्टर प्रचारकों का होता है. वे ही लोग ऍसी जमीन तैयार करते हैं कि लोगों को लडवाया जा सके और इससे राजनेताओं को सारे जरूरी मुद्दों से छुटकारा मिल जाता है.

जिस तरह के राजनितिक भाषण और बयान आजकल सुनने में आ रहे हैं ये बताते हैं कि हमारे नेता कितने गंभीर हैं पर ये यह भी बताते हैं कि वोटर के रुप में हमने कैसे नेताओ को चुना है. ये हमारी और इन नेताओं, दोनों  की लोकतन्त्र के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाते हैं.

जितना धन इन दिनों राजनितिक गर्मी पैदा करने कि किये खर्च किया जा रहा है, वो निश्चित तौर पर हजारों करोड में है, तो आप समझ लें जो भी कोई इस धन की व्यवस्था इन दलों के लिये कर रहा है, अगली सरकार उनके अच्छे रिटर्न के लिये काम करेगी ना कि आप और हम जैसे लोगों के लिये. राजनितिक व्यवस्था अब असल में आर्थिक लाभ की रणनीतियों से तय होती है. और किसी भी राजनितिक दल के आर्थिक एजेंडे में आप और हम नहीं हैं. कभी थे भी नही.

Friday, March 7, 2014

गुस्ताख़ी माफ़ हो !
यह हमारी चौपाल है।  अपनी बात कहने के लिए इससे अच्छी जगह कोई नहीं , लम्बी चुप्पी के बाद एक बार फिर साथ बैठ कर कुछ कहते है कुछ सुनते हैं।